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यत्किं चे॒दं व॑रुण॒ दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒हं म॑नु॒ष्या॒३॒॑श्चरा॑मसि । अचि॑त्ती॒ यत्तव॒ धर्मा॑ युयोपि॒म मा न॒स्तस्मा॒देन॑सो देव रीरिषः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yat kiṁ cedaṁ varuṇa daivye jane bhidroham manuṣyāś carāmasi | acittī yat tava dharmā yuyopima mā nas tasmād enaso deva rīriṣaḥ ||

पद पाठ

यत् । किम् । च॒ । इ॒दम् । व॒रु॒ण॒ । दैव्ये॑ । जने॑ । अ॒भि॒ऽद्रो॒हम् । म॒नु॒ष्याः॑ । चरा॑मसि । अचि॑त्ती । यत् । तव॑ । धर्म॑ । यु॒यो॒पि॒म । मा । नः॒ । तस्मा॑त् । एन॑सः । दे॒व॒ । रि॒रि॒षः॒ ॥ ७.८९.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:89» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे परमात्मन् ! (दैव्ये, जने) मनुष्यसमुदाय में (यत्, किञ्च) जो कुछ (इदं) यह (अभिद्रोहं) द्वेष का भाव (मनुष्याः) हम मनुष्य लोग (चरामसि) करते हैं और (अचित्ती) अज्ञानी होकर (यत्) जो (तव) तुम्हारे (धर्म्मा) धर्म्मों को (युयोपिम) त्यागते हैं, (तस्मादेनसः) उन पापों से (देव) हे देव ! (नः) हमको   (मा, रीरिषः) मत त्यागिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उन पापों से क्षमा माँगी गई है, जो अज्ञान से किये जाते हैं अथवा यों कहो कि जो प्रत्यवायरूप पाप हैं, उनके विषय में यह क्षमा की प्रार्थना है। परमात्मा ऐसे पाप को क्षमा नहीं करता, जिससे उसके न्यायरूपी नियम पर दोष आवे, किन्तु यदि कोई पुरुष परमात्मा के सम्बन्ध-विषयक अपने कर्त्तव्य को पूरा नहीं करता, उस पुरुष को अपने सम्बन्धविषयक परमात्मा क्षमा कर देता है। अन्यविषयक किये हुए पाप को क्षमा करने से परमात्मा अन्यायी ठहरता है। वैदिक धर्म्म में यह विशेषता है कि इसमें अन्य धर्म्मों के समान सब पापों की क्षमा करने से परमात्मा अन्यायकारी ठहरता है, इसी अभिप्राय से मन्त्र में ‘तव धर्म्मा’ यह कथन किया है कि परमात्मा के सम्बन्ध में सन्ध्या-वन्दनादि जो कर्म्म हैं, उनमें त्रुटि होने से भी परमात्मा क्षमा कर देता है, अन्यों से नहीं ॥ जो लोग आर्य्यधर्म्म में यह दोष लगाया करते हैं कि वैदिक धर्म्म में परमात्मा सर्वथा निर्दयी है, वह किसी विषय में भी दया नहीं करता। यह उनकी अत्यन्त भूल है और अज्ञान से किये हुए पाप में भी परमात्मा क्षमा कर देता है, इस बात को मन्त्र में स्पष्ट रीति से वर्णन किया है। कई एक टीकाकारों ने इस प्रकरण को वरुण देवता की उपासना करने में और जल में डूबते हुए पुरुष के बचाने के विषय में लगाया है और ऐसे अर्थ करने में उन्होंने अत्यन्त भूल की है। जब इस प्रकरण में ऐसी-ऐसी दर्शन की उच्च बातों का वर्णन है कि परमात्मा किन-किन पापों को क्षमा करता है और किन-किन को नहीं, तो इस में जल में डूबनेवाले पुरुष की क्या कथा ? इसलिये पूर्व मन्त्र में ‘अपां मध्ये’ के अर्थ प्राणमयकोष के हैं अथवा ‘अपां’ के अर्थ कर्मों में बद्ध जीव के हैं क्योंकि यह संगति इस ११ वें मन्त्र से है और इस वर्ग की समाप्ति तक यही प्रकरण है। जो लोग यह कहा करते हैं वि वेदों में कर्त्तव्य कर्म्मों का विधान नहीं, वेद प्राकृत बातों का वर्णन करते हैं, उनको ऐसे सूक्तों का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है ॥५॥ यह ८९वाँ सूक्त, ५वाँ अनुवाक और ११वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वरुण) हे परमात्मन् ! (दैव्ये, जने) सतां समुदाये (यत्, किञ्च) यत् किञ्चिदपि (इदम्) एतत् (अभि, द्रोहम्) द्वेषभावं (मनुष्याः) वयं नरः (चरामसि) कुर्मः, तथा (अचित्ती) ज्ञानरहितः सन् (यत्) यत्किञ्चित् (तव) ते (धर्मा) धर्मं (युयोपिम) त्यजामि (तस्मात्, एनसः) ततोऽपराधात् (देव) हे दिव्यात्मन् ! (नः) अस्मान् (मा, रीरिषः) मा हिंसीः ॥५॥ एकोननवतितमं सूक्तं पञ्चमोऽनुवाक एकादशो वर्गश्च समाप्तः।